danikjanchetna@gmial.com25112020.
दैनिक जनचेतना
वर्ष:11,अंक:12,मंगलवार,24नवंबर.2020.आज का संदेश .
पदार्थक स्तर पर खाना, वस्त्र और गृहस्थान मानव जीवन की न्यूनतम आवश्यक्ताएँ मानी जाती हैं। खाना शरीर को काम करने के लिए ऊर्जा प्रदान करता है। खाना खाए बगैर शरीर अधिक समय तक जिन्दा नहीं रह पाता। वस्त्रों की आवश्यक्ता शरीर की प्रतिकूल मौसम व मक्खी, मच्छर जैसे कष्टकारी कीटों से रक्षा हेतु पड़ती है। उपयुक्त गृहस्थान मनुष्य को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, शारीरक आराम और शत्रु से सुरक्षा हेतु आवश्यक होता है। इसी लिये स्वस्थ्य जीवन हेतु संतुलित भोजन, सुविधाजनक वस्त्रों और शांत व हवादार स्थान की सिफारिश की जाती है। क्यूँकि यह सभी मनुष्य को जिन्दा रहने के लिए आवश्यक हैं, इस लिए इन का व्यवस्था समाज को बिना किसी भेद भाव करनी चाहिए। ऐसा ना होने का सरल अर्थ बेइंसाफी तथा मानव अधिकारों का उलंघन करना है। भारत का इतिहास-15.
बौद्धमतावल्बियों ने जिस साहित्य का सृजन किया, उसमें भारतीय इतिहास की जानकारी के लिए प्रचुर सामग्रियाँ निहित हैं। ‘त्रिपिटक’ इनका महान ग्रन्थ है। सुत, विनय तथा अमिधम्म मिलाकर ‘त्रिपिटक’ कहलाते हैं। बौद्ध संघ, मिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के लिये आचरणीय नियम विधान विनय पिटक में प्राप्त होते हैं। सुत्त पिटक में बुद्धदेव के धर्मोपदेश हैं। गौतम निकायों में विभक्त हैं-
प्रथम दीर्घ निकाय में बुद्ध के जीवन से संबद्ध एवं उनके सम्पर्क में आये व्यक्तियों के विशेष विवरण हैं। दूसरे संयुक्त निकाय में छठी शताब्दी पूर्व के राजनीतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है, किंतु सामाजिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी इससे अधिक होती है। तीसरे मझिम निकाय को भगवान बुद्ध को दैविक शक्तियों से युक्त एक विलक्षण व्यक्ति मानता है।
चौथे, अंगुत्तर निकाय में सोलह महानपदों की सूची मिलती हैं। पाँचवें, खुद्दक निकाय लघु ग्रंथों का संग्रह है जो छठी शताब्दी ई. पूर्व से लेकर मौर्य काल तक का इतिहास प्रस्तुत करता है। अमिधम्म पिटक में बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त हैं। कुछ अन्य बौद्ध ग्रंथ भी हैं। मिलिंदमन्ह में यूनानी शाशक मिनेण्डर और बौद्ध मिक्षु नागसेन के वार्तालाप का उल्लेख है।
भारतीय़ इतिहास में आज.25 नवंबर
मुख्य घटनाएँ:
1963: अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ़ केनेडी का अंतिम संस्कार हुआ था. अमरीका की राजधानी वाशिंगटन में लगभग आठ लाख लोगों ने अंतिम संस्कार के लिए जाते हुए उनके पार्थिव शरीर को देखा.
1973: ग्रीस में हफ़्तों से फैली अशांति के बीच आज ही के दिन वहां की सेना ने तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज पापाडोपोलोस का तख़्ता पलट दिया था.
1975: सूरीनाम आज ही के दिन आजाद हुआ था.
2014: कथक की मशहूर नृत्यांगना सितारा देवी का निधन हुआ था.
सितारा देवी
जन्म- 8 नवम्बर, 1920, कोलकाता; मृत्यु- 25 नवम्बर, 2014, मुम्बई, महाराष्ट्र) भारत की प्रसिद्ध नृत्यांगना थीं। उनका नाम कथक नृत्यांगना के रूप में किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वे जिस मुकाम पर थीं, वहाँ तक पहुँचने के लिए उन्होंने बहुत संघर्ष किया था। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि मात्र सोलह साल की उम्र में उनका नृत्य देखकर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें "कथक क्वीन" के खिताब से सम्मानित किया था। आज भी लोग इसी खिताब से उनका परिचय कराते हैं। इसके अतिरिक्त सितारा देवी के खाते में 'पद्मश्री' और 'कालिदास सम्मान' भी हैं, जो कथक के प्रति उनकी सच्ची लगन और मेहनत को दर्शाते हैं।
सितारा देवी का जन्म 8 नवम्बर, 1920 में दीपावली की पूर्वसंध्या पर 'कलकत्ता' (आधुनिक कोलकाता) में एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका मूल नाम 'धनलक्ष्मी' था, जबकि घर में प्यार से इन्हें 'धन्नो' कहकर पुकारा जाता था। कथक इन्हें अपने पिता आचार्य सुखदेव से विरासत में मिला था। सितारा देवी को बाल्यकाल में ही माता-पिता के प्यार से वंचित होना पड़ा। मुँह टेढ़ा होने के कारण भयभीत अभिभावकों ने इन्हें एक दाई को सौंप दिया था, जिसने आठ साल की उम्र तक इनका पालन-पोषण किया। इसके बाद ही सितारा देवी अपने घर आ सकीं। सितारा देवी के एक भाई और दो बहनें अलकनन्दा और तारा हैं।
उस समय की परम्परा के अनुसार सितारा देवी का विवाह आठ वर्ष की आयु में ही कर दिया गया था। उनके ससुराल वाले चाहते थे कि वह घरबार संभाल लें, किंतु वह स्कूल जाकर शिक्षा ग्रहण करना चाहती थीं। स्कूल जाने के लिए जिद पकड़ लेने पर उनका विवाह टूट गया और उन्हें 'कामछगढ़ हाई स्कूल' में प्रवेश दिला दिया गया। यहाँ सितारा देवी ने एक अवसर पर नृत्य का उत्कृष्ट प्रदर्शन करके सत्यवान और सावित्री की पौराणिक कहानी पर आधारित एक नृत्य नाटिका में भूमिका प्राप्त करने के साथ ही अपने साथी कलाकारों को भी नृत्य सिखाने की ज़िम्मेदारी प्राप्त की। कुछ समय बाद सितारा देवी का परिवार मुम्बई चला आया। फ़िल्मों में कथक को लाने में इनका प्रमुख योगदान रहा था। बाद के दिनों में प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक के आसिफ़ और फिर प्रदीप बरोट से इन्होंने विवाह किया।
75 साल पहले कोई भी यह नहीं सोचता था कि एक शरीफ़ घराने की लड़की नाच-गाना सीखे। धार्मिक और परंपरावादी ब्राह्मण परिवार में सितारा देवी के पिता और दादा-परदादा सभी संगीतकार हुआ करते थे, लेकिन परिवार में लड़कियों को नृत्य और संगीत की शिक्षा देने की परंपरा नहीं थी। सितारा देवी के पिता आचार्य सुखदेव ने यह क्रांतिकारी कदम उठाया और पहली बार परिवार की परंपरा को तोड़ा। सुखदेव जी नृत्य कला के साथ-साथ गायन से भी ज़ुडे हुए थे। वे नृत्य नाटिकाएँ लिखा करते थे। उन्हें हमेशा एक ही परेशानी होती थी कि नृत्य किससे करवाएँ, क्योंकि इस तरह के नृत्य उस समय पुरुष ही करते थे। इसलिए अपनी नृत्य नाटिकाओं में वास्तविकता लाने के लिए उन्होंने घर की बेटियों को नृत्य सिखाना शुरू किया। उनके इस फैसले पर पूरे परिवार ने कड़ा विरोध प्रदर्शित किया था, किंतु वे अपने निर्णय पर अडिग रहे। इस तरह सितारा देवी और उनकी बहनें अलकनंदा, तारा और उनका भाई भी नृत्य सीखने लगे।
किसी रूढ़ी को तोड़कर कला की साधना में लीन होने का पुरस्कार उन्हें बिरादरी के बहिष्कार के रूप में मिला। समाज से बहिष्कृत होने के बाद भी सितारा देवी के पिता बिना विचलित हुए अपने काम में लगे रहे। बहुत छोटी उम्र में ही उन्हें फ़िल्म में काम करने का मौका मिल गया। फ़िल्म निर्माता निरंजन शर्मा को अपनी फ़िल्म के लिए एक कम उम्र की नृत्यांगना लड़की चाहिए थी। किसी परिचित की सलाह पर वे बनारस आए और सितारा देवी का नृत्य देखकर उन्हें फ़िल्म में भूमिका दे दी। सितारा देवी के पिता इस प्रस्ताव पर राजी नहीं थे, क्योंकि तब वे छोटी थीं और सीख ही रही थीं। परंतु निरंजन शर्मा ने आग्रह किया और इस तरह वे अपनी माँ और बुआ के साथ मुम्बई आ गईं। कुछ फ़िल्मों में काम करने के अलावा उन्होंने फ़िल्मों में कोरियोग्राफ़ी का काम भी किया।सितारा देवी ने अपने सुदीर्घ नृत्य कार्यकाल के दौरान देश-विदेश में कई कार्यक्रमों और महोत्सवों में चकित कर देने वाले लयात्मक और ऊर्जा से भरपूर नृत्य प्रदर्शनों से दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया। वह लंदन में प्रतिष्ठित 'रॉयल अल्बर्ट' और 'विक्टोरिया हॉल' तथा न्यूयार्क के 'कार्नेगी हॉल' में अपने नृत्य का जादू बिखेर चुकी हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि सितारा देवी न सिर्फ़ कथक, बल्कि भरतनाट्यम सहित कई भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों और लोक नृत्यों में पारंगत हैं। उन्होंने रूसी बैले और पश्चिम के कुछ और नृत्य भी सीखें हैं। सितारा देवी के कथक में बनारस और लखनऊ के घरानों के तत्वों का सम्मिश्रण दिखाई देता है। वह उस समय की कलाकार हैं, जब पूरी-पूरी रात कथक की महफिल जमी रहती थी
भारतीय सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्रियों मधुबाला, रेखा, माला सिन्हा और काजोल जैसी बॉलीवुड की अभिनेत्रियों ने सितारा देवी से ही कथक नृत्य की शिक्षा ली। सितारा देवी ने कई फ़िल्मों में भी काम किया था। उनकी फ़िल्मों में 'शहर का जादू' (1934), 'जजमेंट ऑफ़ अल्लाह' (1935), 'नगीना', 'बागबान', 'वतन' (1938), 'मेरी आंखें' (1939) 'होली', 'पागल', 'स्वामी' (1941), 'रोटी' (1942), 'चांद' (1944), 'लेख' (1949), 'हलचल' (1950) और 'मदर इंडिया' (1957) प्रमुख हैं।[1]
सितारा देवी का निधन 25 नवम्बर, 2014 में मुम्बई, महाराष्ट्र में हुआ। उन्हें पेट दर्द की शिकायत के बाद मुम्बई के जसलोक अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
परेरणा .
नर्मदा
सतपुड़ा श्रेणी के पूर्वी भाग को मेकल श्रेणी या मेकल पठार कहते हैं। इसकी पूर्वी सीमा अर्धचन्द्राकरार है जो उत्तर से दक्षिण की ओर फैली है, यह मेकल श्रेणी है जो पश्चिम की ओर प्रपाती कगार द्वारा मेकल के पठार पर समाप्त होती है। इस पठार का विस्तृत भाग 600 मीटर ऊँचा है। घाटियाँ अपेक्षया अधिक नीची हैं, यह प्रदेश भी सघन वनों से ढँका है तथा अनेक छोटी-छोटी नदियों ने छिछली घाटियाँ बना ली हैं। स्कंद पुराण में वर्णित है कि राजा-हिरण्यतेजा ने चौदह हजार दिव्य वर्षों की घोर तपस्या से शिव भगवान को प्रसन्न करके नर्मदा जी को पृथ्वी तल पर आने के लिए वर माँगा। शिव जी के आदेश से नर्मदा जी मगर के आसन पर विराज कर उदयाचल पर्वत पर उतरीं और पश्चिम दिशा की ओर बहकर गईं। उसी समय महादेव जी ने तीन पर्वतों की सृष्टि की-मेठ, हिमावन, कैलाश। इन पर्वतों की लम्बाई 32 हजार योजन है और दक्षिण से उत्तर की ओर 5 सौ योजन की है।
नमामि देवि नर्मदे, त्वदीय पाद पंकजम्।
ताम्र-पाषाण काल-
नर्मदा एवं ताप्ती नदियों के मध्य विन्ध्याचल पर्वत के समानान्तर पूर्व से पश्चिम की ओर सतपुड़ा मेकल श्रेणी का विस्तार है। मध्यप्रदेश में ताम्र पाषाणिक सभ्यता नर्मदा की घाटी में ईसा पूर्व 2500 में विकसित हुई थी। महेश्वर, नवदाटोली कायथा, बरखेड़ा और एरण आदि इस सभ्यता के प्रमुख केन्द्र थे। इन स्थानों की खुदाई में ताम्रकालीन औजार, धातु के बर्तन और अन्य औजार मिले हैं। इस काल में कृषि की जाती थी। मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाया जाता था और इन पर पालिश की जाती थी। प्रमुख पशुओं में गाय, बैल, भेड़, बकरी और कुत्ता आदि पाले जाते थे। इस काल में लोग शाकाहारी, माँसाहारी और फलाहारी थे। आभूषणों व कीमती पत्थरों का प्रयोग श्रृंगार के लिए किया जाता था। वे लोग वृषभ, मातृदेवी, पशुपति, पशुओं और वृक्षों की पूजा करते थे।
वैदिक काल-
महर्षि अगस्त्य के नेतृत्व में ‘यदु कबीला’ इस क्षेत्र में आकर बसा और यहीं से इस क्षेत्र में आर्यों का आगमन शुरू हुआ। वैदिक ग्रंथों के अनुसार विश्वामित्र के 50 शापित पुत्र भी यहाँ आकर बसे। उसके बाद, अत्रि, पाराशर, भार्गव आदि का भी इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ।
नागवंशी शासक नर्मदा की घाटी में शासन करते थे। मौनेय गंधर्वों से जब संघर्ष हुआ तो अयोध्या के इच्छ्वाकु वंश नरेश मान्धाता ने अपने पुत्र पुरुकुत्स को नागों की सहायता के लिए भेजा जिसने गंधर्वों को पराजित किया। नाग कुमारी नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स के साथ कर दिया गया। इसी वंश के राजा मुचुकुंद ने नर्मदा तट पर अपने पूर्वज मान्धाता के नाम पर मान्धाता नगरी स्थापित की थी। यदु कबीले के हैहयवंशी राजा महिष्मत ने नर्मदा के किनारे महिष्मति नगरी की स्थापना की। उन्होंने इच्छवाकुओं और नागों को पराजित किया। कालांतर में गुर्जर देश के भार्गवों से संघर्ष में हैहयों का पतन हुआ। उनकी शाखाओं में तुण्डीकैर (दमोह), त्रिपुरी, दशार्ण (विदिशा), अनूप (निमाड़) और अवंति आदि जनपदों की स्थापना की गयी। महाकवि कालिदास इसी अमरकंटक शिखर को अपने अमर ग्रंथ मेघदूत में आम्रकूट कहकर सम्बोधित करते हैं।
त्वामासगर प्रशमितवनोपल्लवे साधु मूर्धना।
वक्ष्यत्वध्वश्रमपारिगतं सावुमानाम्र कूटः।।
ऐसी किंवदन्ति है कि यहाँ के सघन वन में आमों के वृक्ष थे जो अपनी अनुपम सुरभि बिखेरते थे। पुराणों में अमरकंटक का ऋक्षपाद, देवशिखर और अमरकंटक नाम से उल्लेख है।
शोणो महानदश्चैव मर्दरा सुरयाद्रिजा।
ऋक्षपाद प्रसूता वेतथान्यावेगवाहिनी।।
(मा.यु.अ.-48)
अमराणांकट तुण्डे नृत्यन्ती हसितानना।
अमरादेवताः प्रोक्ताशरीकंट मुच्यता। (एक.यु.अ.15-15)
प्रदक्षिणन्तुयों: कुर्यात्पर्वतेSमरकण्टके।
(शेष-कल )